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विकसित भारत’ दूर की कौड़ी

विकसित भारत’ दूर की कौड़ी

अंतरिम बजट को ‘विकसित भारत’ की संभावनाओं का दस्तावेज मान कर विश्लेषण किए गए हैं। वर्ष 2047 अभी बहुत दूर है। अभी भारत की कुल अर्थव्यवस्था 3.7 ट्रिलियन डॉलर की है। विकसित राष्ट्र के लिए सिर्फ अर्थव्यवस्था का बढना ही पर्याप्त नहीं है, बल्कि देश के लोगों की जीवन-शैली, जीवन-स्तर, आधुनिक शिक्षा, स्वास्थ्य, प्रौद्योगिकी और तकनीकी सुविधाएं और सुधार और व्यापक रोजगार आदि भी बेहतर दर्जे के होने चाहिएं। फिलहाल शिक्षा पर औसतन 3.8 फीसदी और स्वास्थ्य पर मात्र 1.3 फीसदी ही खर्च किया जाता है। अर्थशास्त्री लंबे अंतराल से दलीलें देते रहे हैं कि जीडीपी का कमोबेश 6-6 फीसदी हिस्सा इन क्षेत्रों पर खर्च किया जाना चाहिए। इनके अलावा, कृषि की औसत विकास-दर मात्र 1.8 फीसदी रह गई है, जबकि कोरोना महामारी के दौर में भी यह 3 फीसदी से अधिक थी। हमारी जीडीपी में कृषि की 18-20 फीसदी भागीदारी है, लेकिन अभी एक वैश्विक रपट सामने आई है, जिसका एक निष्कर्ष यह भी है कि दुनिया की 54 प्रमुख अर्थव्यवस्थाओं में से भारत एकमात्र ऐसा देश है, जिसमें किसानों की खेती वर्ष 2000 से लगातार घाटे में है। अंतरिम बजट में भी 1.27 लाख करोड़ रुपए से कुछ अधिक की राशि कृषि मंत्रालय को आवंटित करने की घोषणा की गई है।
यह एक छिपा-दबा तथ्य है कि फसल बीमा का बजट 2.7 फीसदी, अन्नदाता संरक्षण का बजट 21 फीसदी, यूरिया सबसिडी का बजट 7.5 फीसदी घटा दिया गया है। किसान और खेती तो प्रधानमंत्री मोदी के फोकस वाले चार वर्गों में से एक हैं। विशेषज्ञ मौजूदा दौर को ‘कृषि का संकट काल’ मानते हैं। वित्त मंत्री बजट कम करने का कारण बता देतीं, तो हम विचार कर सकते थे। बहरहाल भारत का जो जीडीपी है और विकास-दर 7 फीसदी के आसपास रही है, तो भी हमारी अर्थव्यवस्था 2030 तक दोगुनी नहीं हो सकती। अर्थशास्त्रियों के विश्लेषण हैं कि विकास-दर कमोबेश 11-12 फीसदी लगातार रहनी चाहिए। यदि गति ऐसी नहीं रहती है, तो 7 ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था के लक्ष्य तक पहुंचने में 10 साल लग सकते हैं। फिर विश्व की तीसरी अर्थव्यवस्था बनने के समीकरण खटाई में पड़ सकते हैं। ‘विकसित भारत’ का सपना मीठा और सुखद लगता है, इस पर राजनीतिक प्रचार भी खूब किए जा सकते हैं, लेकिन हमारे सामाजिक, आर्थिक, शैक्षिक आधार वर्ष 2024 तक ऐसे हैं, जिनके मद्देनजर ‘विकसित देश’ का यथार्थ फिलहाल दूर की कौड़ी लगता है।
दरअसल हमारा बजट घाटे का है। यह स्थिति जुलाई के पूर्ण और आम बजट में भी रहेगी। वित्त मंत्री ने यह खुलासा भी नहीं किया कि देश पर लगभग 200 लाख करोड़ रुपए का जो कर्ज है, वह कम कैसे होगा? या उसके भुगतान का अर्थव्यवस्था पर कितना असर पड़ रहा है? बजट में कुल खर्च का अनुमान 44 लाख करोड़ रुपए से अधिक का बताया गया है, जबकि राजस्व की आय 32 लाख करोड़ रुपए से कुछ ज्यादा हो सकती है। दोनों के बीच जितना फासला है, वह सालाना घाटा ही होगा। वित्त मंत्री ने वित्तीय और राजकोषीय घाटों को उल्लेख किया है। वे जीडीपी के 5 फीसदी हिस्से से भी ज्यादा हैं, जो चिंताजनक स्थिति है। बजट में 2025 तक घाटों को 4.5 फीसदी तक लाने की घोषणा की गई है। यदि ये आर्थिक असंतुलन दूर नहीं किए जाते, तो ‘विकसित राष्ट्र’ का सपना साकार कैसे होगा? बजट में मोटे तौर पर रोजगार और नौकरियों के विषय पर बिल्कुल सन्नाटा है। बेरोजगारों के लिए रोडमैप नहीं है।

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